Chhattisgarh Tarkash 2025: सरकार बड़ी या अफसर

तरकश, 23 फरवरी
संजय के. दीक्षित
सरकार बड़ी या अफसर
छत्तीसगढ़ में जमीन के धंधे में नेता से लेकर नौकरशाह तक ऐसे आकंठ डूबे हुए हैं कि इससे जुड़ा कोई अफसर अगर कोई बड़ा कांड भी कर दे तो उसका कोई बाला बांका नहीं हो पाएगा। हम बात कर रहे हैं आरआई विभागीय परीक्षा स्कैम का।
कमिश्नर लैंड रिकार्ड ऑफिस के जिन लोगों ने 2018 के विधानसभा चुनाव के दौरान आरआई एग्जाम में खेला किया, उसी पैटर्न पर…वही लोग 2023 के विधानसभा चुनाव और नई सरकार बनने के दरम्यान परीक्षा में घालमेल कर डाला। बवाल मचा तो दो-दो आईएएस अफसरों की कमेटी से जांच कराई गई।
जांच कमेटी के चेयरमैन केडी कुंजाम पर इतना प्रेशर था कि उन्होंने गोलमोल रिपोर्ट देते हुए अलग से जांच कराने की अनुशंसा कर दी। असल में, जांच कमेटी के कुछ लोग दूध-का-दूध, और….करने पर अड़ गए, इसलिए कुंजाम खुलकर क्लिन चिट नहीं दे पाए।
मगर अलग जांच के लिए लिखा तो इसकी लीपापोती के लिए राजस्व विभाग ने एसीएस होम को इंवेस्टिगेशन के लिए पत्र लिख दिया। जबकि, गृह विभाग कोई जांच एजेंसी नहीं है। एसीएस होम ने मीडिया से कहा भी, उन्हें थाने में रिपोर्ट दर्ज कराना चाहिए।
मीडिया में खबर उछली तो लैंड विभाग से जुड़े अफसर मंत्रालय के अफसरों का परिक्रमा कर आए। अब छत्तीसगढ़ के 97 परसेंट ब्यूरोक्रेट्स जमीन वाले हैं, तो फिर वे जमीन से जुड़े अफसर के खिलाफ कार्रवाई कैसे करते? मगर इतना ही पूछ लेते कि जब कोई मामला ही नहीं था तो भाई जांच कमेटी क्यों बनाई गई? एसीएस होम को पत्र क्यों लिखा जांच के लिए?
चलिए….कोई नहीं। न जाने कितने चीफ सिकरेट्री, एसीएस, पीएस सिकरेट्री और कलेक्टरों को भू-पति बनने में मदद की तो इसका ईनाम तो उन्हें मिलना चाहिए न।
विधायक जीते, बीजेपी हारी
छत्तीसगढ़ के नगरीय निकाय इलेक्शन बीजेपी के लिए ऐतिहासिक रहा तो पंचायत चुनाव में भी ट्रेंड कमोवेश वही रहा। जिन इलाकों में सत्ताधारी पार्टी को झटका लगा, उसके लिए वहां के विधायक और पार्टी के नेता जिम्मेदार हैं।
राजधानी रायपुर से लगे अभनपुर ब्लॉक के तीन जिपं सदस्य चुनाव हार गए तो सोशल मीडिया के स्टेट संयोजक जनपद सदस्य की सीट नहीं निकाल पाए। पता चला है, पार्टी ने जिन पार्टी समर्थित लोगों को चुनाव में उतारा था, वहां के लोकल नेताओं को पसंद नहीं आया। उनने अपने लोगों को पैरेलेल खड़ा कर दिया।
यही वजह रही कि अभनपुर में बीजेपी को करारी हार का सामना करना पड़ा। जशपुर में बीजेपी तीन सीट हार गई, उसके पीछे भी वहां के लोकल नेताओं की जिद रही। सरगुजा के सांसद चिंतामणि महाराज के भाई को बगीचा से टिकिट नहीं देने दिया। वजह? जशपुर के विधायक को अगला चुनाव बगीचा से लड़ना है।
अगर चिंतामणि के भाई जीत जाते तो…? हालांकि, बीजेपी नेताओं की तमाम जोर-आजमाइश के बाद भी चिंतामणि के भाई बगीचा से जीत गए। सूरजपुर और मनेंद्रगढ़ में भी ऐसा ही हुआ। आगे चलकर विधायक टिकिट का दावेदार न बन जाएं, इसलिए योग्य प्रत्याशियों का पत्ता काट दिया गया। संगठन मंत्री पवन साय को अनुशासन का डंडा चलाना चाहिए, क्योंकि इससे बीजेपी की अनुशासित पार्टी की छबि को धक्का लगा है।
मिनिस्टर लेट
22 फरवरी को मंत्रालय में विष्णुदेव कैबिनेट की अहम बैठक हुई। अहम इसलिए कि कैबिनेट में मंत्रियों के साथ गहन विचार-विमर्श के बाद विधानसभा में पेश किए जाने वाले बजट को हरी झंडी दी गई। ऐसे में मंत्री अगर विलंब से पहुंचेंगे तो बातें तो होगी ही।
दो मंत्री आज काफी विलंब से बैठक में पहुंचे। उनमें एक तो लेटलतीफी के लिए बदनाम हो चुके हैं। बहरहाल, मुख्यमंत्री ने कुछ बोला नहीं मगर बैठक के बाद मंत्रियों के बीच इस पर काफी देर तक खुसुर-फुसुर होती रही।
वैसे, ये प्रोटोकॉल के खिलाफ भी है। कैबिनेट में सीएम के पहुंचने से पहले मंत्रियों को पहुंच जाना चाहिए।
वैश्यों की पार्टी?
कुछ साल पहले तक बीजेपी अग्रवालों, मारवाड़ियों की पार्टी कही जाती थी। खासकर, छत्तीसगढ़ में वाकई दबदबा था। 2018 तक इस व्यवसायिक समुदाय से तीन-तीन मंत्री होते थे।
बृजमोहन अग्रवाल, अमर अग्रवाल और राजेश मूणत। स्पीकर भी गौरी शंकर अग्रवाल। छगन मूंदड़ा सीएसआईडीसी और संतोष बाफना पर्यटन बोर्ड चेयरमैन।
संगठन में भी काफी एकतरफा था…चार-से-पांच जिला अध्यक्ष तो होते ही थे। मगर समय का चक्र कहिए कि मंत्री और बोर्ड के चेयरमैन कौन कहें, आज की तारीख में बीजेपी के 33 जिला अध्यक्षों में एक भी इस समुदाय से नहीं हैं।
अमर अग्रवाल को जरूर मंत्री बनाए जाने की संभावनाएं हैं, मगर सिर्फ वैश्य समुदाय से होने से नहीं…इसके पीछे उनकी काबिलियत और मुख्यमंत्री की व्यक्तिगत पसंद होगी। अलबत्ता, बीजेपी द्वारा रेखा गुप्ता के दिल्ली की मुख्यमंत्री बनाए जाने से इस समुदाय से जुड़े नेताओं के चेहरे पर रौनक लौटी है।
बीजेपी की चाबुक
नगरीय निकाय चुनाव में बीजेपी ने ट्रिपल इंजन का स्लोगन दिया और जनता ने इसे हाथोहाथ लेते हुए एकतरफा जनादेश भी दे दिया। मगर इससे बीजेपी की चुनौतियां बढ़ गई है। रुलिंग पार्टी अब दूसरों पर ठीकरा नहीं फोड़ सकती।
छत्तीसगढ़ में बीजेपी सरकार 01, 02 और 03 के दौरान पार्टी कई नगरीय निकायों की सीटें हार जाती थी। सो, शहरों के डेवलपमेंट का काम नहीं होने पर सरकार को विपक्ष पर आरोप लगाने का स्पेस मिल जाता था।
अब शहरी इलाकों में विकास कार्यों के साथ महापौरों, अध्यक्षों और पार्षदों पर लगाम रखने की जरूरत पड़ेगी। जाहिर है, 2023 के चुनाव में जीतने वाले कई नए विधायकों की उच्छृंखलता से बीजेपी परेशान रही। उन्हें पटरी पर लाने में एक साल लग गए।
अब तो महापौर से देकर पार्षद तक भरे पड़े हैं। विधानसभा चुनाव 2028 में वे एंटी इंकाम्बेंसी का कारण न बन जाए, इसके लिए बीजेपी संगठन को अभी से चाबुक तैयार रखना होगा।
अफसरशाही में जातिवाद
अफसरशाही को जाति, धर्म और क्षेत्रवाद से अलग रहना चाहिए। मगर छत्तीसगढ़ में एक विशेष वर्ग के अफसर, सरकार और आम जनता के लिए नहीं, अपने वर्ग के लिए समर्पित हो गए हैं, ये ठीक नहीं।
ये अफसर जातिवादी संगठनों को चंदा दिलवाते हैं, उनके कार्यक्रमों में खुलकर हिस्सा लेते हैं बल्कि उनकी गोपनीय बैठकों में भी शिरकत कर रहे हैं। यदि ऐसा रहा तो अफसरशाही पर से जनता का विश्वास उठेगा। जीएडी को इसे देखना चाहिए।
सीआईसी कौन-1
राज्य सरकार ने तीनेक साल से खाली मुख्य सूचना आयुक्त सलेक्शन का प्रॉसेज प्रारंभ कर दिया है। इसके लिए एसीएस मनोज पिंगुआ की अध्यक्षता में चार सचिवों की सर्च कमेटी गठित कर दी गई है।
संकेत हैं, सरकार आसन्न बजट सत्र में नए सीआईसी के नाम पर मुहर लगा देगी।
मगर सवाल उठता है बनेगा कौन? कुछ दिन पहले तक मुख्य सचिव अमिताभ जैन का नाम इस पद के लिए पक्का माना जा रहा था। दरअसल, पोस्ट विज्ञापित होते ही उन्होंने अप्लाई कर दिया।
मगर इसमें ट्विस्ट तब आया, जब पता चला अमिताभ के बाद निवर्तमान डीजीपी अशोक जुनेजा, पूर्व मुख्य सचिव आरपी मंडल और पूर्व डीजीपी डीएम अवस्थी ने भी आवेदन भर दिया है। इससे लगता है कि विवेक ढांड का इतिहास कहीं दुहरा न जाए।
सीआईसी कौन-2
सरजियस मिंज के रिटायर होने के बाद तत्कालीन मुख्य सूचना आयुक्त की कुर्सी पर तत्कालीन चीफ सिकरेट्री विवेक ढांड ने रुमाल रख दिया था। लिहाजा, करीब साल भर तक ये कुर्सी खाली रही। इसी बीच रेरा का गठन हो गया।
चमक-धमक वाले इस पद को देख ढांड का मन बदल गया। उन्होंने अप्लाई किया और रेरा के फर्स्ट चेयरमैन के लिए उनका सलेक्शन हो भी गया। अमिताभ के सामने भी इस तरह के विकल्प हैं। वे चाहें तो सीआईसी का मोह छोड़ राज्य निर्वाचन आयुक्त के लिए वेट कर सकते हैं।
अमिताभ के पास अभी राज्य योजना आयोग के व्हाइस चेयरमैन का पद अतिरिक्त प्रभार है। 30 जून को रिटायरमेंट के बाद वे इस पद पर कंटीन्यू कर सकते हैं। उसके बाद अजय सिंह के 11 फरवरी 2026 को रिटायर होने से राज्य निर्वाचन आयुक्त का पद खाली हो जाएगा।
अमिताभ को सात महीने राज्य योजना आयोग में रहना होगा। तत्पश्चात उन्हें छह साल वाली पोस्टिंग मिल जाएगी। वैसे भी एमके राउत के बाद सीआईसी में अब कुछ खास बचा नहीं है।
2020 से सीआईसी का पद पांच साल से घटाकर तीन साल कर दिया गया है, बल्कि सुविधाओं में भी काफी कटौती कर दी गई है। कहने का आशय यह है कि अशोक विजयवर्गीय, सरजियस मिंज और एमके राउत के दौर वाला तामझाम इसमें नहीं बच नहीं गया है।
ऐसे में, अमिताभ के लिए तीन साल वाले सीआईसी से कहीं ज्यादा बेहतर राज्य निर्वाचन आयुक्त की पोस्टिंग होगी। फरवरी में भी अगर वे ज्वाईन करेंगे तो इसमें उन्हें साढ़े पांच साल रहने का वक्त मिल जाएगा। ये समीकरण अगर काम किया तो फिर कोई पूर्व डीजीपी सीआईसी बन जाएगा।
यंग अफसर और विदेश
ये ठीक है कि विदेश का सैर-सपाटा अब बहुत खर्चिला नहीं रहा। लोवर मीडिल क्लास के लोग भी अब दो-एक चक्कर लगा आ रहे हैं तो फिर आईएएस, आईपीएस अधिकारियों की तो बात ही नहीं। मगर पैसा है तो इसका ये मतलब नहीं…एक सेल्फ डिस्पिलीन होनी चाहिए…आंखों में पानी भी।
छत्तीसगढ़ के खासकर यंग अफसरों में यह देखने को आ रहा कि साल में वे दो-दो, तीन-तीन फॉरेन टूर कर ले रहे। पता नहीं, सरकार से दूसरी, तीसरी बार इजाजत मांगने की हिम्मत कैसे हो जा रही।
एसपी जिले से गायब
छत्तीसगढ़ सरकार ने कलेक्टर, एसपी के लिए एक सर्कुलर जारी किया था, जिसमें कहा गया था कि बिना अनुमति जिला मुख्यालय छोड़ने वालों की अब खैर नहीं। मगर कई कलेक्टर, एसपी जिला मुख्यालय कौन कहें, बिना इजाजत लिए कुंभ में डूबकी लगा आए।
पिछले दिनों दो पुलिस अधीक्षक बिना बताए गृह मंत्री से मिलने कवर्धा पहुंच गए थे। पुलिस मुख्यालय ने पूछा तो बताए गृह मंत्रीजी ने बुलाया है। इस पर पीएचक्यू ने अफसरों को यह कहते हुए फटकारा कि गृह मंत्री बुलाएं तो जाओ मगर जिला मुख्यालय छोड़कर जाने का सूचना तो दो।
असल में, पिछले कुछ सालों में कलेक्टर, एसपी इस कदर बेलगाम हो गए हैं कि उन पर जीएडी और पीएचक्यू के फारमानों का भी कोई असर नहीं हो रहा।
एक करोड़ की सरपंची
पंचायती राज ने सरपंचों को इतना अधिकारसंपन्न बना दिया है कि शहरों के बड़े-बड़े पार्षद उसके सामने फीके पड़ जा रहे। वर्तमान पंचायत चुनाव की ही बात करें…सरपंच पद का एक-एक प्रत्याशी 10 लाख से लेकर एक करोड़ तक खर्च कर रहा है।
उद्योग तो छोड़ दीजिए, जिन पंचायतों में मुरुम और पत्थर खदानें ज्यादा हैं, वहां बजट करोड़ को क्रॉस कर गया है। नगद नारायण में भी सरपंच आगे हैं। रायपुर, बिलासपुर जैसे शहरों में पार्षद या महापौर के लिए प्रति वोट 500 रुपए बांटे गए, वहीं गांवों में सरपंच के लिए एक वोट का रेट ढाई से तीन हजार तक पहुंच गया है।
दरअसल, सरपंचों के पास इन दिनों असीमित पावर हो गए हैं…उनके बिना एनोसी के आप कुछ कर ही नहीं सकते। अदद आटा चक्की लगाना होगा तो सरपंच बिना 20-25 हजार लिए एनओसी नहीं देगा। छत्तीसगढ़ के सैकड़ों सरपंच अगर स्कार्पियो और इनोवा मेंटेन कर रहे हैं तो आप समझ सकते हैं सरपंची का आउटकम कैसा होगा।
गांवों की जीडीपी टॉप पर
छत्तीसगढ़ के सरपंच प्रत्याशियों से ढाई-से-तीन हजार रुपए मिल ही रहे हैं, जनपद सदस्य, जिला पंचायत सदस्य बांट रहे, वो अलग। एक घर में अगर चार वोट भी है तो गिरे हालत में 20-25 हजार आ ही जा रहा।
एक से अधिक प्रत्याशियों को टोपी पहनाने में सफल हो गए तो फिर और वृद्धि। आपको बता दें, इस समय गांवों में कैश का फ्लो ऐसा बढ़ गया है कि वित्त विभाग अगर कैलकुलेशन करा ले तो इस फरवरी महीने में छत्तीसगढ़ के गांवों की जीडीपी देश में टॉप पर होगा।
अंत में दो सवाल आपसे
1. जेल से छूटकर आए कांग्रेस विधायक देवेंद्र यादव क्या विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष बनाए जाएंगे?
2. कलेक्टरों की ट्रांसफर लिस्ट क्या अगले सप्ताह निकल जाएगी?