Chhattisgarh Tarkash 2025: 2500 करोड़ वेतन और लालफीताशाही

तरकश, 30 मार्च 2025
संजय के. दीक्षित
2500 करोड़ वेतन और लालफीताशाही
छत्तीसगढ़ में कर्मचारियों, अधिकारियों के वेतन पर हर महीने खजाने का 25 सौ करोड़ रुपए खर्च बैठता है। सूबे में इस समय 3.84 लाख राज्य शासन के कर्मचारी, अधिकारी हैं, जिनमें 2.10 लाख शिक्षक हैं। 25 सौ करोड़ महीने के हिसाब से वेतन कैलकुलेट करें तो यह साल का 30 हजार करोड़ होता है। इसके बाद भी लालफीताशाही हॉवी है, तो इससे बड़ी विडंबना क्या होगी। सिस्टम को इस पर मंथन करना चाहिए कि राज्य स्थापना के 25 वर्ष पूरे करने के बाद भी छत्तीसगढ़ में वर्किंग कल्चर क्यों नहीं बन पाया। मध्यप्रदेश के समय राजधानी भोपाल बस्तर और सरगुजा से 900 किलोमीटर दूर था, फिर भी छत्तीसगढ़ के पटवारी, तहसीलदार और बाबू, अधिकारी उस समय निरंकुश नहीं हुए थे। स्कूल के मास्टर साहबों में इतनी स्वच्छंदता नहीं थी। बड़़े लोगों के बच्चे भी सरकारी स्कूलों में पढ़ते थे। तब जिले के कलेक्टरों का रुतबा होता था। कलेक्टर जिस दिशा में निकल जाए, उस इलाके में हड़कंप मच जाता था…सरकारी ऑफिस के लोग अलर्ट हो जाते थे। हालांकि, वर्किंग कल्चर बनाने विष्णुदेव सरकार ने कोशिशें शुरू की है, मगर चीजें इतनी बिगड़ चुकी है कि सरकारी प्रयास नाकाफी प्रतीत हो रहा। इसके लिए एक मुहिम चलानी पड़ेगी। ई-ऑफिस और अफसरों की टाईम से उपस्थिति सिर्फ मंत्रालय तक सीमित नहीं रहनी चाहिए। दूरदराज के गांवों के स्कूलों और स्वास्थ्य केंद्रों में शिक्षकों और डॉक्टरों की मौजूदगी सुनिश्चित हो…टारगेट उस लेवल का रखना चाहिए। आखिर, महीने का 2500 करोड़ खर्च हो रहा वेतन पर।
ब्यूरोक्रेसी में बहादुर अली
करप्शन को लेकर देश में बदनाम हो रहे छत्तीसगढ़ कैडर से चिंतित आईएएस एसोसियेशन ने कुछ दिन पहले अफसरों की एक अहम बैठक बुलाई थी। शाम पांच बजे के बाद हुई इस बैठक को काफी गुप्त रखा गया। मीटिंग को होस्ट करते हुए अपर मुख्य सचिव मनोज पिंगुआ और ऋचा शर्मा ने चिंता जताई उसका लब्बोलुआब यह था कि इतना छोटा कैडर होने के बाद भी दो-दो आईएएस अधिकारी इस समय जेल में हैं, उसके बाद भी कई अफसर बहादुर अली बने हुए हैं। अफसरों से कहा गया कि वे देश के सबसे प्रतिष्ठित सर्विस में हैं, उन्हें इसके मान-सम्मान का खयाल रखना चाहिए। एसोसियेशन की चिंता सही है। ईडी की बड़ी कार्रवाइयों के बाद भी अफसरशाही के तौर-तरीकों में कोई बदलाव नहीं आया है। अब तो मसूरी के आईएएस एकेडमी में छत्तीसगढ़ कैडर की चर्चाएं हो रही हैं…2010 तक छत्तीसगढ़ कैडर मिलने पर अफसर नाक-भौं सिकोड़ते थे, अब प्रायरिटी देकर छत्तीसगढ़ आ रहे हैं। कारण आप समझ सकते हैं।
करप्शन को संरक्षण
छत्तीसगढ़ कैडर की बदनामी को लेकर आईएएस एसोसियेशन चिंतित जरूर है मगर कैडर को पथभ्रष्ट करने में उनके पूर्वजों का बड़ा हाथ है। राज्य बनने के बाद मध्यप्रदेश से छांट कर छत्तीसगढ़ को टिकाए गए अधिकांश पुराने अफसरों ने दोनों हाथ से लूटा ही, किसी अफसर का कोई मामला फंसा तो उनके लिए ढाल बनकर खड़े हो गए। राधाकृष्णन माध्यमिक शिक्षा मंडल के एकाउंट से आठ करोड़ निकाल आराम से रिटायर होकर घर चले गए। आईएएस केडीपी राव ने जीएडी को इसकी रिपोर्ट भेजी मगर आईएएस लॉबी ने डीई-डीई खेलकर आज तक कोई एक्शन नहीं होने दिया। तत्कालीन खेल सचिव एमएस मूर्ति ने क्रिकेट स्टेडियम बनाने में घोटाले के नए प्रतिमान स्थापित किए। रेणु पिल्ले की जांच में उन्हें दोषी ठहराया गया। मगर कोई कार्रवाई नहीं हुई। सारे मुख्य सचिव गांधीजी के तीन बंदर की तरह इस पर आंख मूंदे रहे। एनटीपीसी के 500 करोड़ के मुआवजा प्रकरण में रायगढ़ के तत्कालीन कलेक्टर और एसपी ने दमदारी दिखाते हुए एसडीएम को सस्पेंड कराने के साथ एफआईआर दर्ज कराया था। कई महीने तक एसडीएम फरारी में रहे। कुछ दिनों पहले सिस्टम ने उन्हें क्लीन चिट दे दिया, वो भी तब जब उस समय के रायगढ़ के कलेक्टर, एसपी इस समय बेहद पावरफुल पोजिशन में हैं। अभनपुर के भारतमाला प्रोजेक्ट में 324 करोड़ के बंदरबांट मामले में जांच रिपोर्ट छह महीने पहले आ गई थी। अक्टूबर 2024 में राजस्व विभाग ने दो पटवारियों को सस्पेंड कर मामले को दबा दिया। मीडिया में जब यह मामला उछला तो फिर दो राप्रसे अधिकारियों को निलंबित किया गया। इसमें दो आईएएस की संलिप्तता सामने आ रही है कि, जिन्होंने दलालों के साथ मिलकर जमीन खरीदी और उसके टुकड़े कर करोड़ों रुपए का मुआवजा अंदर कर लिया…फिर भी सिस्टम आंख बंद किया हुआ है।
ब्यूरोक्रेसी की कड़वी सच्चाई
ये अच्छी बात है कि आईएएस एसोसियेशन कैडर की शुचिता को लेकर गंभीर हुआ है। उंच-नीच देखने पर सीएम सचिवालय के अफसर आजकल फोन खड़का अफसरों को टोक दे रहे हैं। मगर ब्यूरोक्रेसी की कड़वी सच्चाई यह है कि साफ-सुथरी छबि के जो 20-25 परसेंट अफसर हैं, अपनी लाइन तो सही रखते हैं मगर भ्रष्ट अफसरों को टोकने और क्रीटिसाइज करने की बजाए उनके बचाव में उतर आते हैं…इससे अपचारियों को बल मिल जाता है। ये छत्तीसगढ़ ही नहीं, कमोवेश पूरे देश की स्थिति है। कैडर के साथियों के प्रति अति-अनुराग का ही नतीजा है कि शायद ही कोई राज्य बचा होगा, जहां के एकाध आईएएस जेल में न हों। अच्छे अधिकारियों को इस पर विचार करना चाहिए। जिसके जींस में करप्शन का वायरस घुस गया है, उन्हें तो इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि कितने साथी उनके जेल में हैं। मगर कम-से-कम नए अफसरों को सही रास्ता दिखाया जा सकता है।
ऐसे भी आईएएस
ऐसा नहीं कि छत्तीसगढ़ की पूरी ब्यूरोक्रेसी दागदार हो गई है। छत्तीसगढ़ में कुछ ऐसे आईएएस भी हैं, जिनके पास अपना स्वाभिमान है और काम भी। एक जिला पंचायत की महिला आईएएस सीईओ पानी और फसल चक्र पर ऐसा काम कर रही कि उसका जवाब नहीं। उसी तरह एक छोटे जिले के कलेक्टर एक बड़े नगर निगम में कमिश्नर रहते ऐसे बड़े-बड़े काम कर डाले कि वहां के लोग आज भी याद करते हैं। पिछली सरकार में जब ब्यूरोक्रेसी के लोग काम करने का माहौल नहीं होने का रोना रो रहे थे, तब यंग आईएएस ने बड़े लोगों का कब्जा तोड़ 40 फुट नया रोड निकाल दिया। इसके लिए उन्होंने हाई कोर्ट जाने से भी गुरेज नहीं किया। अफसर ने कई गंदे तालाबों को रमणीक स्थल बना दिया…शहर को लाइट से ऐसा रौशन किया कि रायपुर भी उसके सामने फीका पड़ जाता है। इसी तरह एक प्रमोटी कलेक्टर का ग्राउंड पर इतना तगड़ा काम है कि सरकार उसे मॉडल के तौर पर पेश कर सकती है। सिस्टम को ऐसे अफसरों की लिस्टिंग करनी चाहिए कि कौन रीयल वर्कर है और कौन कागजी? जाहिर है, काम करने वाले अफसर एक हद से अधिक जी-हुजूरी करते नहीं। और कड़वा सत्य है कि सिस्टम को चाटुकारिता पसंद होता है। मामला यही पर गड़बड़ा जाता है। इससे नुकसान राज्य का होता है।
पूर्णकालिक डीजीपी
अशोक जुनेजा के रिटायर होने के बाद सरकार ने अरुणदेव गौतम को कार्यकारी डीजीपी बना दिया है। मगर पूर्णकालिक पुलिस प्रमुख के लिए पेनल फायनल नहीं हो रहा। यूपीएससी से बार-बार क्वेरी आ जा रही। पेनल में पवनदेव, अरुणदेव गौतम और हिमांशु गौतम के साथ अब जीपी सिंह का नाम भी जुड़ गया है। जीपी सीनियरिटी में तीसरे नंबर पर हैं। याने हिमांशु से उपर। बहरहाल, सरकार को क्वेरी क्लियर कराकर जल्द पेनल मंगवानी चाहिए। क्योंकि, पूर्णकालिक डीजीपी का एक कांफिडेंस अलग होता है। हालांकि, अशोक जुनेजा 11 महीने तक कार्यकारी डीजीपी रहे थे। सितंबर 2021 में डीएम अवस्थी को हटाकर उन्हें एक्टिंग डीजीपी बनाया गया था। उसके बाद सितंबर 2022 में उनका पूर्णकालिक का आदेश हुआ। बहरहाल, अरुणदेव गौतम के लिए राहत की बात यह है कि नक्सल मोर्चे पर कामयाबी बदस्तूर जारी है। उनकी फोर्स ने 30 नक्सलियों को ढेर कर दिया। मगर मैदानी इलाकों में स्थिति जस-की-तस बनी हुई है। रायपुर जहां पूरा सिस्टम बैठा है, वहां की हालत यह है कि इस हफ्ते एक महिला को इसलिए आत्महत्या करनी पड़ गई कि थाने में उसकी रिपोर्ट दर्ज नहीं की गई। महिला की मौत होते ही रिपोर्ट दर्ज कर ली गई। रायपुर के एक थाने में इसी तरह की घटना और हुई। कहने का आशय यह है कि अरुणदेव को मेजर सर्जरी करनी होगी। सरकार को भी एसपी, आईजी की पोस्टिंग में उनकी राय को वेटेज देना होगा। वरना, छत्तीसगढ़ की पोलिसिंग शीर्षासन मुद्रा में बनी रहेगी।
पीएचक्यू में बदलाव
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के 30 मार्च को छत्तीसगढ़ दौरे के बाद पुलिस मुख्यालय में भी कुछ बदलाव हो सकता है। सूबे के सबसे सीनियर आईपीएस अधिकारी पवनदेव को हाउसिंग कारपोरेशन में सवा पांच साल हो गए हैं। इतना टाईम तो टीआई और डीएसपी भी एक जगह नहीं टिकते। ऑल इंडिया सर्विस के अधिकारियों के लिए तीन-चार साल का समय स्ट्रीम होता है। पांच साल से अधिक समय तक एक ही कुर्सी पर बैठने से उसकी मानसिक स्थिति पर क्या प्रभाव पड़ेगा, इसे समझा जा सकता है। ऐसे में, लगता है सरकार पवनदेव को कोई और पोस्टिंग दे सकती है। जीपी सिंह को भी ज्वाईनिंग के बाद अभी कोई पोस्टिंग नहीं मिली। अरुणदेव गौतम को प्रदेश पुलिस का मुखिया बनाने के बाद उन्हें होमगार्ड, फायर ब्रिगेड समेत कई जिम्मेदारियों से मुक्त नहीं किया गया है। एफएसएल और अभियोजन खाली पड़ा है। इससे ऐसा लगता है कि सरकार डीजीपी को अन्य दायित्वों से अलग करते हुए उन्हें पोलिसिंग पर फोकस करने का मौका देगी। वैसे, कोई डीजीपी चाहता भी नहीं कि पुलिस का सुप्रीमो बनने के बाद कोई और चार्ज उसके पास रहे। ये तो ऐसा ही हुआ कि चीफ सिकरेट्री बना दिया और साथ में एक विभाग भी थमा दिया जाए। एएन उपध्याय के साथ भी ऐसा ही हुआ था। डीजी बनाने के बाद भी उनके पास काफी समय तक प्रशासन विभाग की जिम्मेदारी रही।
कलेक्टर, एसपी ट्रांसफर पर ब्रेक?
प्रधानमंत्री के दौरे के बाद सरकार तुरंत लोक सुराज अभियान का ऐलान करेगी। हो सकता है, नवरात्रि में ही इसकी घोषणा हो जाए। सचिवालय में इसकी युद्ध स्तर पर तैयारी की जा रही है। ऐसे में, कलेक्टरों और पुलिस अधीक्षकों का ट्रांसफर लोक सुराज से पहले होगा या बाद में, सीन क्लीयर नहीं हो रहा है। वैसे, ट्रांसफर पर डिसिजन करना सीएम और उनके सचिवालय का काम है। मगर इसमें महत्वपूर्ण पहलू यह भी है कि ट्रांसफर की लटकी तलवार के चलते कई जिलों के कलेक्टर, एसपी काम करना लगभग बंद कर दिए हैं…उन जिलों में सिर्फ रुटीन के काम निबटाए जा रहे हैं। जाहिर है, जिन कलेक्टर्स, एसपी पर खतरे मंडरा रहे हैं, उनका काम में मन कैसे लगेगा? वे जब तक रहेंगे, सिर्फ खानापूर्ति ही होगा। सो, ट्रांसफर जितना लंबा खींचेगा, सिस्टम का उतना नुकसान होगा।
अंत में दो सवाल आपसे
1. डीजीपी अरुणदेव गौतम के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती पोलिसिंग है या कुछ और?
2. सीएस अमिताभ जैन और रिटायर डीजीपी अशोक जुनेजा में से कोई मुख्य सूचना आयुक्त बनेगा या किसी तीसरे की इंट्री होगी?