Bilaspur High Court: दुष्कर्म के एक मामले में हाई कोर्ट ने कहा- कोर्ट नाबालिग गवाह की गवाही पर कर सकता है भरोसा
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Bilaspur High Court: बिलासपुर। नाबालिग पीड़िता को भगाकर ले जाने,बलपूर्वक विवाह करने और बिना सहमति के शारीरिक संबंध बनाने के बाद बच्चे को जन्म देने के एक मामले में छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट ने महत्वपूर्ण फैसला सुनाया है। चीफ जस्टिस रमेश सिन्हा व जस्टिस रविंद्र अग्रवाल की डिवीजन बेंच ने अपने फैसले में लिखा है कि आरोपी द्वारा किया गया अपराध बहुत ही भयानक है, जिसके लिए बहुत कठोर सजा की आवश्यकता है। पीड़िता के मन पर घृणित कृत्य का प्रभाव आजीवन रहेगा। पीड़ित के स्वस्थ विकास पर प्रतिकूल प्रभाव डालने वाला है। इस बात पर कोई विवाद नहीं है कि घटना के समय पीड़िता की उम्र 12 साल से कम थी। इसलिए, हमारे पास ट्रायल कोर्ट के फैसले को बहाल करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। डिवीजन बेंच ने इस महत्वपूर्ण टिप्पणी के साथ याचिकाकर्ता की अपील को खारिज करते हुए ट्रायल कोर्ट के फैसले को बरकरार रखा है।
दुष्कर्म के आरोप में सजा काट रहे अभिषेक रात्रे ने पाक्सो कोर्ट के उस फैसले को हाई कोर्ट में चुनौती दी थी जिसमें उसे सात साल की सजा सुनाई है। अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश, एफटीएससी (पोक्सो), रायपुर द्वारा विशेष आपराधिक मामला (पोक्सो) मेंअपीलकर्ता को भारतीय दंड संहिता (IPC) की धाराओं 363, 366, 376 (3) और लैंगिक अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम, 2012 (POCSO) की धाराओं 4 (2) और 6 के तहत अपराध के लिए दोषी ठहराते हुए 7 साल के लिए कठोर कारावास और 500 रुपये के जुर्माने की सजा सुनाई है। जुर्माना न चुकाने पर आईपीसी की धारा 363 के तहत 2 महीने के लिए अतिरिक्त कारावास, 7 साल के लिए कठोर कारावास और 500 रुपये के जुर्माने, जुर्माना न चुकाने पर आईपीसी की धारा 366 के तहत 2 महीने के लिए अतिरिक्त कारावास, 20 साल के लिए कठोर कारावास और 2000 रुपये के जुर्माने, जुर्माना न चुकाने पर आईपीसी की धारा 376 (3) और पोक्सो अधिनियम की धारा 4 (2) के तहत 6 महीने के लिए अतिरिक्त कारावास 2000/- रुपये का जुर्माना, अदा न करने पर पोक्सो अधिनियम की धारा 6 के अंतर्गत 6 माह का अतिरिक्त कारावास की सजा सुनाई थी। कोर्ट ने सभी सजाओं को एकसाथ चलाने का निर्देश दिया था। स्पेशल कोर्ट के फैसले के बाद अपीलकर्ता जेल में है और सजा काट रहा है।
क्या है मामला
पीड़िता ने आरोप लगाया है कि याचिकाकर्ता उसे रायपुर से महाराष्ट्र ले गया था और महाराष्ट्र में ही उसका प्रसव कराया गया था तथा उसने यह भी स्वीकार किया है कि पुलिस उसे महाराष्ट्र से वापस रायपुर लेकर आई थी। पीड़िता ने बताया कि वह घर के बाहर बैठी थी, तभी अपीलकर्ता आया और उससे कहा चलो घूमने चलते हैं। वह उसे बंजारी मंदिर ले गया और फिर बस से एक गांव में ले गया जहां उसे एक झोपड़ी में रखा। वे वहां पांच-छह दिन रही। दो-तीन दिन बाद उसकी मां और अपीलकर्ता के पिता उसे लेने आए और अपीलकर्ता के मझले भाई के घर गए। बाद में उसकी मां अपीलकर्ता के मझले भाई के साथ आई लेकिन रायपुर में लॉकडाउन होने वाला था तो वह वापस आ गई। पीड़िता ने यह भी कहा है कि अपीलकर्ता उसे मंदिर ले गया, उसकी मांग में सिंदूर भर दिया और कहा कि अब उनकी शादी हो गई है। कोई कुछ नहीं कर सकता। एक बार उसके बच्चे हो जाएं तो उसके माता-पिता मान जाएंगे और पुलिस कोई कार्रवाई नहीं करेगी। पीड़िता ने यह भी आरोप लगाया कि वह बच्चा नहीं चाहती थी लेकिन अपीलकर्ता ने बच्चा पैदा करने के लिए उसके साथ जबरन शारीरिक संबंध बनाए जिससे वह गर्भवती हो गई उसने एक लड़की को जन्म दिया।
ट्रायल कोर्ट के फैसले को हाई कोर्ट में दी थी चुनौती
ट्रायल कोर्ट के फैसले को चुनौती देते हुए अपने अधिवक्ता के माध्यम से हाई कोर्ट में चुनौती दी। डिवीजन बेंच के सामने पैरवी करते हुए अधिवक्ता ने कहा कि ट्रायल कोर्ट का निर्णय गलत, त्रुटिपूर्ण, कानून, तथ्यों और मामले की परिस्थितियों के विपरीत है, इसलिए इसे रद्द किया जाना चाहिए। अपीलकर्ता और पीड़िता एक-दूसरे से अच्छी तरह परिचित थे और उन्होंने शारीरिक संबंध बनाए हैं और पीड़िता के आचरण और अभियोजन पक्ष द्वारा एकत्र की गई सामग्री को देखते हुए यह स्पष्ट है कि पीड़िता इच्छुक और सहमति देने वाली पार्टी है। इसलिए कथित अपराध उसके खिलाफ नहीं बनते हैं। अपीलकर्ता और पीड़िता लगभग 12 वर्षों की लंबी अवधि तक एक साथ रहे, जिससे पीड़िता की सहमति और इच्छा का पता चलता है।
हाई कोर्ट की महत्वपूर्ण टिप्पणी
चीफ जस्टिस रमेश सिन्हा व जस्टिस रविंद्र अग्रवाल की डिवीजन बेंच ने अपने फैसले में लिखा है कि इस तथ्य के बावजूद कि प्रतिवादी, उच्च न्यायालय द्वारा संशोधित सजा भुगतने के बाद जीवन में आगे बढ़ सकता है, उसके प्रति कोई नरमी दिखाने का कोई सवाल ही नहीं है। इस तथ्य के अलावा कि कानून न्यूनतम सजा का प्रावधान करता है, प्रतिवादी द्वारा किया गया अपराध बहुत ही भयानक है जिसके लिए बहुत कठोर सजा की आवश्यकता है। पीड़ित/बच्चे के मन पर घृणित कृत्य का प्रभाव आजीवन रहेगा। इसका प्रभाव पीड़ित के स्वस्थ विकास पर प्रतिकूल प्रभाव डालने वाला है। इस बात पर कोई विवाद नहीं है कि घटना के समय पीड़िता की उम्र 12 साल से कम थी। इसलिए, हमारे पास ट्रायल कोर्ट के फैसले को बहाल करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है।
पीड़िता की विश्वसनीय गवाही स्वीकार किए जाने योग्य
यह देखना उचित है कि यौन उत्पीड़न/ दुष्कर्म के मामलों में पीड़िता की एकमात्र गवाही के आधार पर अभियुक्त को दोषी ठहराया जा सकता है या नहीं, यह सवाल अब प्रासंगिक नहीं रह गया है। सर्वोच्च न्यायालय ने कई निर्णयों में इस मुद्दे पर विचार किया है और माना है कि यदि पीड़िता की एकमात्र गवाही विश्वसनीय पाई जाती है तो अभियुक्त को दोषी ठहराने का एकमात्र आधार हो सकता है और इस तरह के मामलों में पीड़िता की विश्वसनीय गवाही स्वीकार किए जाने योग्य है। जहां तक अपराध की तिथि पर पीड़िता की आयु का प्रश्न है, वह अप्रिय घटना के समय 14 वर्ष, 07 माह और 11 दिन की थी।
अपीलकर्ता को हाई कोर्ट ने दी ये छूट
डिवीजन बेंच ने अपने फैसले में कहा है कि वह हाई कोर्ट विधिक सेवा समिति या सुप्रीम कोर्ट विधिक सेवा समिति की सहायता से सुप्रीम कोर्ट के समक्ष अपील करके इस न्यायालय द्वारा पारित वर्तमान निर्णय को चुनौती देने के लिए स्वतंत्र है।