Athe Kanhaiya : छत्तीसगढ़ में जन्माष्टमी का लोकरूप "आठे कन्हैया"…. जानिये क्या करते हैं इस दिन

Athe Kanhaiya : छत्तीसगढ़ में जन्माष्टमी का लोकरूप "आठे कन्हैया"…. जानिये क्या करते हैं इस दिन

Aathe Kanhaiya: छत्तीसगढ़ में कान्हा के जन्मोत्सव-जन्माष्टमी के त्यौहार को लोकरूप ‘आठे कन्हैया‘ के नाम से जाना जाता है। 

आठे कन्हैया भादो महीने के कृष्ण पक्ष में अष्टमी को मनाया जाता है। संयोग देखिए कि श्रीकृष्ण देवकी के गर्भ से जन्म लेने वाली आठवीं सन्तान थे और उनका लोक अवतरण भी अष्टमी को हुआ।

इसिलिये इन दोनों करणों के कारण  आठे कन्हैया के दिन छत्तीसगढ़ के ग्रामीण जन आठ बालचित्रों को दीवार पर चित्रित कर पूजते हैं।

छत्तीसगढ़ के लोक जीवन में आठे कन्हैया के प्रति बहुत आस्था है। क्या बच्चे, बूढे, स्त्री-पुरूष सभी इस दिन उपवास रखते है और श्रीकृष्ण की जन्म बेला में आठे कन्हैया (भित्ति चित्र) की पूजा करते हैं।

कंस के कारगार में देवकी व वासुदेव के जीवन की त्रासद स्थिति का मार्मिक चित्रण छत्तीसगढ़ी के सोहर गीत में हुआ है-

दुख झन मानव कहे

बसदेव धीरज बंधावे

कारागृह में पड़े हम दूनों

कतेक दुख ल साहन ओ

ललना ………………….

रिमझिम रिमझिम पनिया

जब बरसन लागे ओ

दीदी बिजली हे कइसे चमचम

चमकन लागे हो

ललना ………………….

आठे के दिन मोर ये दे

पैदा भए कान्हा ओ

कृष्ण अंधियारी राते

पैदा भए कान्हा ओ

ललना …………………………

चूड़ी रंग, स्याही, सेमी, भेंगरा पत्ते आदि के कच्चे रंग से इन चित्रों को बनाया जाता है। 



आठे कन्हैया में आठ चित्रों का अंकन किया जाता है।  चूड़ी रंग, स्याही, सेमी, भेंगरा पत्ते आदि के कच्चे रंग से इन चित्रों को बनाया जाता है। इन चित्रों का अंकन कितना सहज और अकृत्रिम होता है कि अपने सीधे सादे रूप में भी अधिक प्राणवान लगते हैं।

आठे कन्हैया छत्तीसगढ़ की अति प्राचीन भित्ति कला है। आठे कन्हैया के दिन ग्रामीणजन घर की दीवार में 2-3 तीन फीट की ऊँचाई पर यह चित्र बनाते हैं और उसे अपनी कल्पना से आकार देते हैं, कच्चे रंगां से सजाते हैं। आसपास साँप-बिच्छू का भी चित्र बनाते हैं।

इसका प्रतीक होता है आठे कन्हैया

ये आठ चित्रों का समूह देवकी के गर्भ से पैदा हुई आठां संतान का सूचक है। और भादो की अष्टमी तिथि का भी। कुल मिलाकर यह लोक की अपनी कल्पना है। वे आठ चित्र समूह कहीं-कहीं दो पंक्तियों में और कहीं-कहीं एक ही पंक्ति में ही अंकित होते हैं। कुछ क्षेत्रों में इन चित्रों को नाव में सवार बताये जाते हैं। अंतिम छोर के चित्रों के हाथों में पतवारे होती हैं। कृष्ण जन्म और नाव के चित्रों को लोक चाहे इसे जो आकार दे ले पर उनकी आस्था एक ही होती है।

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